केदारनाथ सिंह : बिम्ब विधान के कवि
- By satyadhisharmaclassesofficial
- August 23, 2023
- 406
- Blog
भारत के सर्वोच्च साहित्यिक पुरस्कार ज्ञानपीठ से सम्मानित कवि केदारनाथ सिंह आधुनिक हिंदी कविता में बिम्ब के कवि के रूप में जाने जाते हैं। उत्तर प्रदेश के बलिया जनपद में 7 जुलाई, 1934 को पैदा हुए केदारनाथ सिंह पेशे से एक शिक्षक थे। उनके बारे में उनसे पढ़े हुए विद्यार्थी बताते हैं कि वे जितने अच्छे कवि हैं, कक्षा में उतने ही श्रेष्ठ शिक्षक भी रहे। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से पढ़ाई करने के बाद कुछ समय उत्तर प्रदेश के कुशीनगर में ही अध्यापन कार्य किया। अंत में वे जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में बतौर आचार्य और अध्यक्ष के रूप में कार्यरत रहे और सेवानिवृत्त हुए।
केदारनाथ सिंह, अज्ञेय द्वारा सम्पादित तीसरे सप्तक जिसका प्रकाशन 1959 ई में हुआ, से प्रकाश में आते हैं और उसके बाद उनका रचनात्मक और उर्वर धरातल हिंदी कविता के सौंदर्य में अभिवृद्धि करता चलता है। ‘अभी बिलकुल अभी’ उनका पहला काव्य संग्रह भी 1960 ई में प्रकाशित हो गया। उसके बाद ‘ज़मीन पक रही है’, ‘यहाँ से देखो’, ‘अकाल में सारस’, ‘उत्तर कबीर और अन्य कविताएँ’, ‘बाघ’, ‘तालस्ताय और साइकिल’, ‘सृष्टि पर पहरा’ और आख़िरी काव्य संग्रह ‘मतदान केंद्र पर झपकी’ प्रकाशित हुई। ‘हाथ’, ‘तुम आईं’, ‘जाना’, ’बनारस’ या ‘फ़र्क़ नहीं पड़ता’ जैसी उनकी कविताएँ आज के समय में पोस्टर कविताओं का प्रतिनिधित्व करती हैं। ये आधुनिक हिंदी कविताओं के ककहरे के रूप में पढ़ी- सुनी जाती हैं। केदारनाथ सिंह के लिए बिम्ब बड़ा प्रिय विषय है। उनकी पीएच डी भी ‘आधुनिक हिंदी कविता में बिम्ब विधान’ विषय पर आलोचक हज़ारी प्रसाद द्विवेदी के निर्देशन में सम्पन्न हुई।
केदारनाथ सिंह को हम एक बिंबवादी कवि के रूप में देखते हैं। ऐसा नहीं है कि इससे पूर्व बिम्ब कविताओं में दिखाई ही नहीं देता था, बिम्ब अवश्य थे, लेकिन केदारनाथ सिंह ने अपनी कविताओं में बिम्ब को एक महत्त्वपूर्ण टूल के रूप में इस्तेमाल किया। बिम्बवाद असल में बीसवीं सदी का एक काव्य आंदोलन रहा। “बीसवीं सदी के आरंभ में प्रतीकवाद की अस्पष्टता और रहस्यमयता तथा स्वच्छंदतावाद की भावुकता एवं अनिर्दिष्टता की प्रतिक्रिया में कविता में स्पष्टता और ग्राह्यता लाने के उद्देश्य से प्रारंभ हुआ। इस आंदोलन में कुछ अमेरिकी और अंग्रेज़ी कवि सम्मिलित हुए।” अंग्रेज़ी कवि टी ई ह्यूम को बिंबवाद का प्रवर्तक माना जाता है। पाश्चात्य साहित्य में यह 1909 ई में एक आंदोलन के रूप में आरंभ हुआ। टी. ई. ह्यूम, एजरा पाउंड, एफ. एस. फ़्लिंट, रिचर्ड आलिंगटन और ड़ी. एच. लारेंस जैसे कवियों ने इसमें अपनी भूमिका निभाई। यह आंदोलन जितनी तेज़ी से चला उतने ही तेज़ी से ढह भी गया। इसका प्रमुख उद्देश्य रहा विषयगत या विषयीगत वस्तु का चित्रण, चित्र को न प्रस्तुत कर पाने वाले शब्दों का बहिष्कार व लय संगीत से युक्त योजना।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल मानते हैं, समय जितना आगे बढ़ता जाएगा, कविकर्म उतना मुश्किल होता चला जाएगा। बिम्ब कविता की ग्राह्यता को बढ़ावा देता है। यदि कवि का भाव जटिल है, तो बिम्ब उसे सरल कर प्रस्तुत कर सकता है। आचार्य शुक्ल लिखते हैं कि “काव्य में अर्थ ग्रहण से काम नहीं चलता, बिम्ब ग्रहण अपेक्षित होता है।” बिम्ब को लेकर स्वयं केदारनाथ सिंह ने बहुत स्पष्ट लिखा है कि “बिम्ब वह शब्द चित्र है जो कल्पना के द्वारा ऐंद्रिय अनुभवों के आधार पर निर्मित होता है।”3 आगे और व्याख्यायित करते हुए इसे वे स्पष्ट करते हैं “कवि जब मानव मन के सहज, कृत्रिम, गतिशील, जटिल संवेगों का भाषा के जीवंत माध्यम के द्वारा शाब्दिक पुनर्निर्माण करता है तो उसे समीक्षा की आधुनिक पदावली में बिम्ब कहा जाता है।”
केदारनाथ सिंह की कविताओं में गँवई चीजों और भावों के लिए बड़ा स्थान है। वे ठेठ देशी और गँवई मिज़ाज के कवि भी हैं। उनकी कविताओं में भूमंडलीकरण के कारण उपजी चिन्ताएँ एक छोर पर हैं तो दूसरी ओर उनका गाँव, नदियाँ, पेड़-पौधे, अनाज के दाने, पेड़ों के तने की लकड़ियाँ तक बोल उठती हैं। जिस शहर को वे देखते हैं, बड़ी सूक्ष्मता से देखते हैं, शहर उनको कैसे बदल रहा, उसका सुंदर विश्लेषण वहाँ देखने को मिलता है। उनके यहाँ माँझी का पुल है तो बंसी मल्लाह भी हैं, झुम्मन और नूर मियाँ हैं तो हल के साथ गपबाजी करते हुए लोग भी। उनकी कविताओं में दूर गाँव के कछार नज़र आते हैं, अनाजों के वे खेत हैं जहाँ पर वे पहले रहे, खेतों की मेड़ें हैं लेकिन बाद में वे शहर आ गए लेकिन वे यादें, उनकी स्मृतियाँ धुंधली हुई सी उनके ज़ेहन में साथ-साथ चलती रहीं। उनके काव्य का फलक तो बहुत बड़ा है लेकिन इन सबको रचने के लिए वे अपने शिल्प में जिस बिम्ब को ले आते हैं, वे एक से एक शानदार बिम्ब हैं। बिम्ब भी केवल एक जैसे नहीं, अपने स्वरूप में वैविध्य लिए हुए। उनके बिम्ब देखिए-
“एक बच्चा जागता है
और घने कोहरे में पिता की चाय के लिए
दूध ख़रीदने
नुक्कड़ की दुकान तक अकेले चला जाता है”
यहाँ बस एक दृश्य है, इसे पढ़ते हुए ऐसा लगता है, बच्चा जाते-जाते मानो हमारी आँखों से अभी ओझल हो जाएगा। यह इस कवि की ख़ूबसूरती है। जिस तरह के बिम्ब ये अपनी कविताओं में रचते हैं, वे बिम्ब इनकी अपनी विशेषता हैं।
“क्योंकि मैंने देखा है
सारी रोशनियों के बुझ जाने के बाद भी
रात के तीसरे पहर
जब भेजने के लिए किसी के पास
कुछ नहीं होता
बड़ा डाकघर तब भी खुला रहता है”
इस कविता के अर्थ गहरे हैं लेकिन बात यहाँ उनके कविता में गहरे अर्थ की न होकर उस अर्थ को प्रस्तुत करने के लिए जिस शिल्प का सहारा लेते हैं, उसकी हो रही है। बड़े डाकघर के खुले होने का यह दृश्य रात के घुप अंधेरे में भी मानों हम कवि की आँखों से देख पा रह हों।
“और बहुत से यात्री
एक दूसरे के सामान पर सिर टिकाकर
इस तरह सो रहे थे
जैसे वो किसी का कंधा हो”
यहाँ बेचारगी को जिस दृश्य में कवि ने उपस्थित किया है, वह निश्चित ही पाठक मन को संवेदना से भर देता है। कंधे का निहितार्थ यहाँ कितना बड़ा है, लेकिन हमारे सामने भीड़ में यात्रा करते हुए, रेल और बसों में सामान की तरह भरे हुए लोगों के दृश्य उपस्थित हो जा रहे हैं। केदारनाथ सिंह जाने भी इसी लिए जाते हैं।
“तुम्हें नूर मियाँ की याद है
गेहुँए नूर मियाँ
ठिगने नूर मियाँ
रामगढ़ बाज़ार से सुरमा बेच कर
सबसे अंत में लौटने वाले नूर मियाँ”
गेहुँए और ठिगने कहते ही हमारे सामने एक व्यक्ति का रूप उपस्थित हो जाता है। हम सब कविता पढ़ते हुए अपने-अपने तरीक़े से नूर मियाँ को देख पाते हैं। बिम्ब में कवि जो रचता है, उसे पाठक अपने अनुभव से ग्रहण करता है। इसलिए सभी नूर मियाँ को अपने-अपने रूप में देख पा रहे हैं, लेकिन कवि नूर मियाँ को दिखला पा रहा है, यही उसका उद्देश्य रहा।
बिम्ब केवल दृश्यों के ही नहीं होते हैं, बिम्ब का कार्य ग्राह्यता है, हम अपने से बाहर का कुछ भी अपनी इंद्रियों के माध्यम से ही ग्रहण करते हैं। आँखों से देखते हैं तो नासिका हमें गंध का भान कराती है, कान, जीभ या त्वचा ये सब इंद्रियाँ हमें बोध कराती हैं। केदारनाथ सिंह की कविता में सभी तरह के बिम्ब मिलते हैं-
“जब वर्षा शुरू होती है
एक बहुत पुरानी सी गंध खनिजगंध
सार्वजनिक भवनों से निकलती है”
या फिर यहाँ इस कविता में देखिए-
“एक गंध आ रही है
और वह नहीं जानता कहाँ से
मगर गंध आ रही है
यह भूसे की ख़ुशबू है- वह अपने आप से कहता है”
यदि हम कभी भूसे के पास गए हों, भुसौले के पास से गुजरते हुए फसल के सूखे डंठलों के छोटे-छोटे रूप जो अब भूसा बन चुका है, उसकी गंध आती है। यह पढ़ते हुए सभी के सामने भूसे की गंध एक बार गुजरती है। वे बिम्ब रचने में हिंदी के माहिर कवि हैं।
“रात कहीं
कोई
मीनार टूटने की आवाज़
इधर आई थी”
एक और कविता देखिए –
“गली में सुनाई पड़ती है
मुहल्ले के आख़िरी आदमी के लौटने की आवाज़
**
ठीक इसी समय एक घंटा बजता है”
इन कविताओं को गहराई से पढ़ते हुए, मानो हम किसी जाते हुए आदमी के पदचाप को सुन पा रहे हों, हम महसूस कर पा रहे हों जैसे कोई अभी जा रहा है, धीरे-धीरे वह पदचाप दूर जाएगी और फिर उसका सुनाई देना बंद हो जाएगा।
बनारस कविता उनकी श्रेष्ठ कविताओं में से एक है। यह कविता पूरे शहर को एक और बनारस के रूप में हमारे सामने ले आती है,
“इस शहर में धूल
धीरे-धीरे उड़ती है
धीरे-धीरे चलते हैं लोग
धीरे-धीरे बजते हैं घंटे
शाम धीरे-धीरे होती है”
जब वे लिखते हैं कि
“उसका हाथ
अपने हाथ में लेते हुए मैंने सोचा
दुनिया को
हाथ की तरह गर्म और सुंदर होना चाहिए”
तो एक सुंदर, कोमल हाथ जिसमें गरमाहट हो, हम महसूस करते हैं और कवि असल में यही चाहता भी है।
हिंदी कविता में बिम्ब के सहारे श्रेष्ठ कविताएँ इस कवि ने दीं। बिम्ब शब्दचित्र होते हैं, ऐंद्रिय अनुभव के आधार पर बिंबों को कल्पना के सहारे कवि हमारे सामने उपस्थित कर देता है। केदारनाथ सिंह की कविताओं को पढ़ते हुए इंद्रियों के सन्निकर्ष से बिम्ब हमारे सामने अनेक रूपों में दृश्य, ध्वनि, स्पर्श, गंध आदि में उपस्थित होते हैं। कविताओं में सबसे अधिक दृश्यों वाले ही बिम्ब मिलते हैं, केदारनाथ सिंह के यहाँ भी ऐसा ही है। लेकिन उसके साथ-साथ अन्य जिन भी इंद्रियों से हम बाह्य परिवेश को ग्रहण करते हैं, वे बिम्ब भी उनकी कविताओं को समृद्ध करते हैं। बिम्ब उनकी कविताओं का वह टूल है जिसके सहारे वे हमसे और अधिक मुख़ातिब हो पाते हैं, उनकी कविताएँ और अधिक हमारे क़रीब चली आती हैं।
Add Comment